परमेश्वर मुझसे क्या अपेक्षा करता है?
क्या आप उन अधिकांश मसीही विश्वासियों में एक हैं, जो अपने जीवन के द्वारा परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं। उसी समय, अपनी पूरी ईमानदारी में, कई बार आप मसीही जीवन को जीने के प्रयास में थक जाते हैं। कई बार बस केवल ऐसा महसूस होता है कि यह बहुत अधिक दबाव वाला है।
जब मैं एक नास्तिक थी, पाप मेरे लिए कोई मूल्य ही नहीं रखता था। मैं व्यवहारिक रूप से जागरूक नहीं थी। मैंने वास्तव में आत्मग्लानि का अनुभव नहीं किया था। परन्तु जब मैं एक मसीही विश्वासी बन गई…यहाँ पर जरा रूकिए। मैंने पाया कि ऐसी बहुत सी बातें मेरे जीवन में थीं जिन्हें मैं कर रहा थी और जिन्हें परमेश्वर मेरे जीवन में नहीं चाहता था। साथ ही मैं अन्यों को प्रेम करने, बाइबल का पठन् करने, प्रार्थना करने, गवाही देने, अन्यों को शिष्य इत्यादि बनाने की आवश्यकता के प्रति भी जागरूक हो गई। और कई बार मैंने सोचा, “एक नास्तिक होना इससे ज्यादा आसान था।” अब जबकि मैं परमेश्वर को जानती हूँ, तो मैंने मेरे जीवन में उसे प्रसन्न करने के दायित्व के भाव को गंभीरता से महसूस किया। मैं बाइबल का पठन् करती थी, मैं एक आदेश को पढ़ती थी, और ऐसे जान पड़ता था, कि मैं ईमानदारी से एक वचन के बाद दूसरा वचन पढ़ने के पश्चात् यह कहती थी, “हाँ, यह अच्छा विचार है, मुझे और अधिक इसे अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है।”
सौभाग्य से परमेश्वर ने मुझे पवित्रशास्त्र से कुछ सीखा दिया जिसने मुझे पूर्ण रीति से इस उच्च दायित्व, लक्ष्यों को प्राप्ति-के-मन से छुटकारा दे दिया, जिससे मैं परमेश्वर को पुन: देख सकती थी और उसके साथ मेरे अपने सम्बन्ध को गहराई से आनन्द ले सकती थी। पवित्रशास्त्र की पुस्तकों रोमियों, गलातियों, इफिसियों, 1 और 2 कुरिन्थियों…और सभी स्थानों में एक बहुत बड़ा सिद्धान्त पाया जाता है।
वह यह है: परमेश्वर ने आप में सिद्धता की मांग नहीं की है। परमेश्वर आपसे यह अपेक्षा नहीं कर रहा है कि आप कसौटी पर खरे उतरें। परमेश्वर ने यह कभी नहीं सोचा है कि आप मसीही जीवन को यापन कर सकते हैं, नही, उसने यह अपेक्षा की है, कि आप वास्तव में उसके पवित्र मानदण्डों को पूरा कर सकते हैं। यदि आप सोचते हैं, कि आप कर सकते हैं, तो उसे इस पृथ्वी पर आ कर आपके लिए मरना नहीं पड़ता। परन्तु उसने ऐसा किया।
यीशु ने भीड़ से कहा, “इसलिये चाहिए कि तुम सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है।” इस कारण, यह सत्य है कि परमेश्वर की व्यवस्था, उसके आदेश, सिद्धता की मांग करते हैं। और यदि हमें परमेश्वर के द्वारा उसके आदेशों के ऊपर जीवन यापन करते हुए स्वीकार किया जाता है, तो हमें सिद्ध बनने की आवश्यता होती। इसमें कोई आश्चर्य नहीं हैं कि यीशु हमें हमारे पापों की सजा से बचाने के लिए आया!
परमेश्वर को उसकी सिद्धता और हमारा पाप से भरे हुए होने के मध्य की खाई का पता है। यहाँ तक कि मसीही विश्वासी होने पर भी, हम में निरन्तर इस खाई को बन्द कर देने का खींचाव बना रहता है, जिससे कि हम और अधिक आराम को महसूस कर सकें, जिससे कि हम परमेश्वर की निकटता को महसूस कर सकें। कुछ लोग इस खाई को परमेश्वर के मानदण्डों अर्थात् आदर्शों को निम्न स्तर के आदर्शों पर ला कर बन्द करना चाहते हैं: “परमेश्वर वास्तव में कभी भी ऐसा नहीं चाहता है…।” अन्य लोग इस खाई को पाटने के लिए उच्च आदर्शों को बढ़ा कर करने का प्रयास करते हैं: “अर्थात् मैं और अधिक मेहनत करूँगा…”
परमेश्वर इस खाई के बारे में क्या कहता है? यह वहीं पर है और यह वहीं पर सदैव रहेगी। परन्तु आप, जिन्होंने अपने विश्वास को यीशु में रख दिया है, अपने जीवन में उसे प्राप्त किया है, आप क्षमा कर दिए गए हैं, धर्मी ठहरा दिए गए हैं, उसकी आँखों में मूल्यवान् ठहरे हैं, उसके हाथों में देखभाल के लिए थामे गए हैं। आप पूर्ण रीति से उसके हैं और वह आपको बिना किसी शर्त के, इस खाई के होने के पश्चात् भी प्रेम करता है।
“अत: जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें, जिसके द्वारा विश्वास के कारण इस अनुग्रह तक जिसमें हम बने हैं, हमारी पहुँच भी हुई”1
तथापि आप अपने जीवन में किसी एक स्थान पर पहुँचे होंगे जहाँ आपने यह सोचना आरम्भ किया होगा कि निश्चित ही परमेश्वर अब इसके बदले में कुछ अदायगी चाहता है।
इस लेख का उद्देश्य आपको इस विचार के फंदे में पड़ने से बचाने का है कि अब आपको परमेश्वर के लिए आदर्शों को पूरा करना होगा। पवित्रशास्त्र हमें इसके विरूद्ध सावधान करता है, क्योंकि यह मसीह को जानने के आपके आनन्द की आप से चोरी कर लेगा।
इसलिए, आइए हम इस बात की ओर गंभीरता से देखें कि परमेश्वर आपके उसके साथ सम्बन्ध के बारे में क्या कहता है। आइए कुछ मूल नियमों को देखें, जो वह उसके साथ सम्बन्ध बनाने बारे में बोलता है।
आप कैसे मसीह विश्वासी बन जाते हैं
जब आप एक मसीह विश्वासी बन गए, तो आइए देखें कि इस प्रक्रिया में अर्थात् आपके प्रयासों बनाम परमेश्वर ने अपने दायित्व के कितने बोझ को उठाया:
- परमेश्वर ने इस संसार की नींव रखे जाने से पहले आपको चुन लिया और उसके होने के लिए आपको बुलाया।2
- परमेश्वर इस पृथ्वी पर आपके लिए आ गया।3
- परमेश्वर आपके पापों के लिये व्यक्तिगत् रूप से मर गया।4
- परमेश्वर ने सुनिश्चित किया कि कोई आपको सुसमाचार सुनाए।5
- परमेश्वर ने आपके जीवन में आने का प्रस्ताव दिया।6
- परमेश्वर ने उसे जानने की और उसके प्रति प्रतिउत्तर देने के लिए आपको इच्छा दी है।7
- आप उसकी ओर मुड़ गए और उसे प्राप्त कर लिया।
- परमेश्वर ने आपके जीवन में प्रवेश किया, आपको धर्मी ठहराया और आप क्षमा कर दिए गए और उसने अपने होने के लिए आपको बुलाहट दी।8
आप मसीही विश्वासी केवल परमेश्वर में विश्वास व्यक्त करने के द्वारा बन गए हैं। यही ठीक वह रास्ता है जिसमें वह चाहता है कि आप मसीही जीवन को यापन करें…केवल विश्वास में परमेश्वर के प्रति प्रतिउत्तर देते हुए। दायित्व का बोझ (और क्षमता) परमेश्वर के ऊपर टिका हुआ है। हो सकता है कि आप सोच रहे होंगे, “यह तो बहुत ही आसान है। इसमें ऐसी बड़ी बात क्या है?” समस्या यहाँ पर यह है कि लगभग प्रत्येक मसीही विश्वासी इस बात के ऊपर इस समय या किसी और समय उसके जीवन में आ खड़ा होता है। क्यों?
सोचना मानवीय स्वभाव है कि आप परमेश्वर के ऋणी उन बातों के लिए हैं जो उसने आपको दी हैं। साथ ही यह सोचना भी मानवीय स्वभाव है कि अब क्योंकि आप बाइबल को थोड़ा सा जानते हैं, अब आप प्रार्थना के बारे में थोड़ा सा जानते हैं, या अब हो सकता है कि आप परमेश्वर के बारे में औरों से थोड़ी सी बात करने को समझते हैं…अब समय आ गया है कि आप एक “अच्छे विश्वासी” बनने के दायित्व को ले लें। ऐसी कोई बात यहाँ पर नहीं है, जो परमेश्वर को जानने के आपके आनन्द को जल्दी से बढ़ा दे।
और यदि, आप स्वयं से, इस भ्रान्तिपूर्ण निर्णय तक नहीं पहुँच जाते कि आपको परमेश्वर के लिए उच्च आदर्शों को प्राप्त करना है, तब अन्य विश्वासी, दुर्भाग्य से, आपको आत्मग्लानि, दबाव और परमेश्वर की सर्वोत्तम तरीके से आज्ञापालन करने की अपेक्षा को महसूस करना अच्छे से जानते हैं। यह लेख (आशा करती हूँ) कि आपको परमेश्वर के लिए आदर्शों को पूरा करने की झूठी अपेक्षाओं के बोझ के अनुभव को आरम्भ किए बिना एक मसीही जीवन को कैसे यापन किया जाता है, के बारे में पवित्रशास्त्र से समझ को प्रदान देगा। यह आपको दिखाएगा कि परमेश्वर आपसे कितना गहरा प्रेम करता है और वह कैसे चाहता है कि आप उसके साथ सम्बन्ध को स्थापित करें।
परमेश्वर ने अपने सम्बन्ध को आपके साथ ऐसे स्थापित नहीं किया यह आपके ऊपर सम्भव है, अपितु यह उसके स्वयं के ऊपर सम्भव है। आइए इसे इन वचनों से देखें:
हम कैसे परमेश्वर के लिए ग्रहणयोग्य है?
आप उसके अनुग्रह (उसकी दया) के द्वारा क्षमा घोषित किए गए हैं, क्योंकि यीशु की मृत्यु आपके लिए हुई है। आपने उसकी क्षमा के वरदान को यह विश्वास करते हुए प्राप्त किया है कि यीशु ने आपके पापों के लिए अदा कर दिया है, ठीक है ना? आपने क्षमा को प्राप्त नहीं किया है। आपने बस परमेश्वर में विश्वास किया है जब वह कहता है कि उसने आपको क्षमा कर दिया हैं।
“…पर जब हमारे उद्धारकर्ता परमेश्वर की कृपा और मनुष्यों पर उसका प्रेम प्रगट हुआ, तो उसने हमारा उद्धार किया; और यह धर्म के कामों के कारण नहीं, जो हम ने आप किए, पर अपनी दया के अनुसार।”9 “हम को उसमें उसके लहू के द्वारा छुटकारा, अर्थात् अपराधों की क्षमा, उसके उस अनुग्रह के धन के अनुसार मिला है जिसे उसने हम पर…. बहुतायत से किया है…”10
ठीक है, अब क्योंकि आप एक विश्वासी हैं, क्या नियम परिवर्तित हो गया है? क्या परमेश्वर के पास अब आपके लिए अपेक्षाओं की एक लम्बी सूची है? नहीं, हो सकता है कि अब आप सोचते होंगे, “एक मिनट रूकिए। बाइबल आदेशों से भरी हुई है। आप एक अनुच्छेद को यह कहते हुए नहीं पढ़ सकते हैं कि कुछ न किया न किया जाए।” यह सत्य है। परन्तु जबकि परमेश्वर आपको आदेश देता है, वह साथ आपको यह कहता है कि आप इसे पूरी रीति से पालन नहीं कर सकते हैं। सच्चाई तो यह है कि वह आपसे कहता है कि जितनी अधिक मेहनत से आप इसके पालन करने पर ध्यान देंगे, उतना अधिक आप अपने आप में पाप को देखेंगे।11 साथ, जितनी मेहनत के साथ आप प्रयास करेंगे, उतना अधिक आप असफल होने, परमेश्वर के न्याय के नीचे आने, और दण्ड का अनुभव करेंगे, और परिणामस्वरूप आप उतना ही अधिक आप परमेश्वर से दूर होना महसूस करेंगे।
प्रेरित पौलुस इस हताशा के बारे में जिसे उसने भी महसूस किया था, बात करता है। उसने परमेश्वर की व्यवस्था के ऊपर देखा और कहा, “आदेश पवित्र, धर्मी और अच्छे हैं।” तथापि जितना अधिक उसने इसके अनुसार जीवन यापन करने की कोशिश की, उतना ही वह पाप करता चला गया। वह कहता है कि, “इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते…जिस बुराई की इच्छा नहीं करता - वही किया करता हूँ।12 अपनी पूर्ण हताशा में वह कहता है कि, “मैं कैसा अभागा मनुष्य हूँ। मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?”परमेश्वर का समाधान?“हमारे प्रभु यीशु मसीह के द्वारा –परमेश्वर का धन्यवाद हो!”13
पवित्रशास्त्र के सामने असफलता, पाप और दण्ड के अनुभव का सामना किए जाने की आवश्यकता है। “अत: अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं।”14 “परन्तु परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा। अत: जब कि हम अब उसके लहू के कारण धर्मी ठहरे, तो उसके द्वारा परमेश्वर के क्रोध से क्यों न बचेंगे!”15
इस तरह से जब आप परमेश्वर के आदेशों को देखते हैं, तो उन्हें स्वयं की सामर्थ्य से पूरा करने का प्रयास न करें…अपितु इसकी अपेक्षा परमेश्वर से कहिए, जो आपके अन्दर वास करता है, कि वह इन्हें आप में उत्पन्न करे। यदि परमेश्वर कहता है कि एक दूसरे को प्रेम करो, तो उसकी यह मंशा नहीं है कि आप उत्साही दायित्व में निकल पड़ें और परमेश्वर को दिखाएँ कि आप कितना प्रेम करने वाले हो सकते हैं। इसकी अपेक्षा वह चाहता है कि आप उसके ऊपर निर्भर रहना सीखिए, “हे परमेश्वर, मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे हृदय में वास करें और ऐसा होने दें मुझे जैसे आप देखना चाहते हैं वैसा बन जाऊँ, और उस व्यक्ति के लिए प्रेम मेरे हृदय में ठीक उसी रीति से डाल दीजिए जैसा आप उनसे प्रेम करते हैं। मैं अपने स्वयं की सामर्थ्य से प्रेम नहीं कर सकता हूँ, परन्तु मैं प्रार्थना करता हूँ कि मेरे जीवन में उनके लिए आपका महान् प्रेम उत्पन्न हो जाएगा।”
भिन्नता क्या है?
परमेश्वर के लिए आत्मनिर्भर हो कर आदर्शों को पूरा करना बनाम परमेश्वर के ऊपर निर्भर होना और उस पर टिके रहना कि वह आपके द्वारा जीवन यापन करे में भिन्नता है। हम परमेश्वर से अलग आत्मनिर्भर हो कर परिपक्व नहीं बनते हैं। हम केवल तभी परिपक्व बनते हैं जब उसके ऊपर निर्भर रहते हैं, और वह इसे इसी तरीके से चाहता है। वह चाहता है कि आप उसके साथ सम्बन्ध में स्वतंत्रता और प्रेम का आनन्द, उसके ऊपर भरोसा करते हुए, उसके ऊपर निर्भर रहते हुए उठाएँ। वह आपसे उसके लिए आदर्शों को पूरा किए जाने की अपेक्षा नहीं कर रहा है।
बाइबल परमेश्वर के आदेशों को “व्यवस्था” के नाम से पुकारती है। अब क्योंकि आप विश्वासी हैं, आप अब और व्यवस्था के अधीन नहीं या परमेश्वर के न्याय और दण्ड के अधीन नहीं हैं – इसकी अपेक्षा आप को क्षमा कर दिया गया और अनन्त जीवन दे दिया गया है। आपको व्यवस्था की मांग से स्वतंत्र कर दिया गया है।
पौलुस कहता है, “मनुष्य व्यवस्था के कामों से नहीं, पर केवल यीशु मसीह पर विश्वास करने के द्वारा धर्मी ठहरता है, हम ने आप भी मसीह यीशु पर विश्वास किया कि हम व्यवस्था के कामों से नहीं, पर मसीह पर विश्वास करने से धर्मी ठहरें, इसलिये कि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी धर्मी न ठहरेगा।”16
कितना अधिक पौलुस परमेश्वर के आदेशों के ऊपर ध्यान केन्द्रित करता और उन्हें पूरा करने का प्रयास करता है? “…मैं तो व्यवस्था…के लिए मर गया कि परमेश्वर के लिये जीऊँ…मैं मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाया गया हूँ, अब मैं जीवित न रहा, पर मसीह यीशु मुझ में जीवित है; और मैं शरीर में अब जो जीवित हूँ तो केवल उस विश्वास से जीवित हूँ जो परमेश्वर के पुत्र पर है, जिस ने मुझ से प्रेम किया और मेरे लिये अपने आप को दे दिया। मैं परमेश्वर के अनुग्रह को व्यर्थ नहीं ठहराता; क्योंकि यदि व्यवस्था के द्वारा धार्मिकता होती, तो मसीह का मरना व्यर्थ होता!”17
मसीह को ग्रहण करने से पहले, आप परमेश्वर से दूर थे, आपके पास केवल परमेश्वर के आदेशों को जानने की क्षमता थी, और आप परमेश्वर के दण्ड के अधीन थे। परन्तु अब आप आप में रहने वाले मसीह और उसके आत्मा को जानते हैं।
परमेश्वर कहता है कि, “मैं अपने नियमों को उनके हृदय पर लिखूँगा और मैं उनके विवेक में डालूँगा।” और उसी स्थान पर वह ऐसा कहता है कि, “मैं उनके पापों को और उनके अधर्म के कामों को फिर कभी स्मरण न करूँगा।”18 इसलिए, व्यवस्था का आपके बाहर होने, आपनी मांग को लेकर आपके ऊपर मँडराते रहने की अपेक्षा, परमेश्वर ने अपनी व्यवस्था को आपके मनों में डाल दिया है, और जब पवित्रात्मा आपको परिवर्तित करता है, वह आपको उसे प्रसन्न करने वाले कार्य करने के लिए बढ़ते रहने वाली इच्छा देता है। समय के व्यतीत होने के साथ, जब आप परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध में बढ़ते चले जाते हैं, तो वह निरन्तर आपमें उसके सामने पवित्र जीवन यापन करने की क्षमता और इच्छा का निर्माण करता चला जाता है।
“क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन् परमेश्वर का दान है, और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे। क्योंकि हम उसके बनाए हुए हैं, और मसीह यीशु में उन भले कामों के लिये सृजे गए जिन्हें परमेश्वर ने पहले से हमारे करने के लिये तैयार किया।”19
परमेश्वर के पास आपके जीवन के लिए एक योजना है, कि वह दूसरों के लाभ और अपनी महिमा के लिए आपके जीवन को उपयोग करे। अब आपका सम्बन्ध परमेश्वर से हो गया है, और परमेश्वर अपने जीवन के साथ उसमें वास करते हुए, आपमें भले कामों को उत्पन्न कर रहा है।
पाप के साथ क्या किया जाए?
अब मुझे यह प्रश्न करने दीजिए: उस समय क्या होता है जब आप उससे कहते हैं कि वह आपके जीवन में कुछ उत्पन्न करे या किसी एक विशेष पाप से आपको छुटकारा दे, और आप तब भी संघर्ष करते हैं? उस समय क्या होता है जब आपके पास अभी भी बुरा गर्म गुस्से वाला स्वभाव है या आप देखते हैं कि आप स्वयं को परीक्षा से बचा नहीं पा रहे हैं, या आप देखते हैं कि आप प्रार्थना करने में असफल हो रहे हैं या जैसा आप सोचते हैं वैसे अपनी बाइबल का पठन् नहीं कर पा रहे हैं? उस समय क्या करें? क्या यह वह समय जब मसीह जीवन के दायित्व को अपने ऊपर ले लेना चाहिए और अपने पूरे प्रयासों को करना चाहिए? नहीं ऐसा नहीं है। जिस पल आप परमेश्वर के लिए अपने आदर्शों को करने का प्रयास का आरम्भ करते हैं, उतना अधिक आप असफलता को देखेंगे, उतना अधिक आप परमेश्वर से स्वयं को दूर पाएंगे, और उतना अधिक आपके पास उसे जानने का आनन्द कम होगा।
एक विश्वासी के लिए यह सोचना आसान है कि परमेश्वर प्रयासों को पुरस्कृत करेगा, क्योंकि इसी तरह से हमारा पूरा समाज कार्य करता है…दायित्वपूर्ण बनिए, परिश्रम कीजिए, अपने सर्वोत्तम प्रयास को कीजिए…और आपको पुरस्कृत किया जाएगा। एक विश्वासी बाइबल एक आदेश को देख सकता है और सोच सकता है कि, “हाँ, यदि मैं कठिन परिश्रम करता हूँ तो मैं इसे कर लूँगा।” और वह बहुत अधिक हताशा की ओर बढ़ रहा है, क्योंकि बाइबल कहती है कि व्यवस्था के ऊपर ध्यान देने से केवल एक ही बात निकल कर आती है…पाप के प्रति जागरूकता। परमेश्वर ने आपके साथ अपने सम्बन्ध को प्रयास और पुरस्कार वाले के रूप में स्थापित नहीं किया है। उसने इसके विपरीत किया है, वह चाहता है कि जिनसे वह प्रसन्न होता है उन बातों को उत्पन्न करने के लिए आप उसके ऊपर भरोसा करें।
जब तक आप इस पृथ्वी पर रहेंगे आप पाप करते करेंगे। इस जीवन में आप कभी भी सिद्ध नहीं बन सकते हैं। न केवल आप इसे जानते हैं, अपितु परमेश्वर भी जानता है। जब आप पाप को अपने जीवन में पहचाने, तो इसका अंगीकार करे, और जो कुछ उसने आपसे प्रतिज्ञाएँ की उसके ऊपर विश्वास करें:
“यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासोग्य और धर्मी है।”20
परमेश्वर द्वारा आपको परिवर्तित करने में धैर्य धरें
परमेश्वर को जानने में ध्यान केन्द्रित करें। प्रार्थना, बाइबल का पठन्, संगति में बने रहने और अन्य विश्वासियों के साथ शिक्षा पाने में…ये सभी अच्छी बातें हैं, उसे सर्वोत्तम रीति से जानने की खोज करें। परन्तु आपका विश्वास अपने स्वयं के प्रयास पर नहीं टिका हुआ होना चाहिए, अपितु इसकी अपेक्षा परमेश्वर की योग्यता आपके जीवन में कार्य करे। यीशु ने कहा यह दाखलता के ऊपर अँगूर के लगे होने जैसा है। यीशु मुख्य दाखलता है और उसने कहा कि हम उसकी शाखाओं के जैसे हैं। “तुम मुझ में बने रहो (या टिके रहो), और मैं तुम में। जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे तो अपने आप से नहीं पल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते।”21
यीशु आगे कहते हैं कि, “जैसे पिता ने मुझ से प्रेम रखा, वैसे ही मैं ने तुम से प्रेम रखा। मेरे प्रेम में बने रहो।”22
यीशु के यह कहने का क्या अर्थ है कि “मेरी आज्ञाओं को माने”?
जीवन यापन का सही मार्ग, वह मार्ग है जिसमें आप और अधिक बहुतायत के जीवन का अनुभव करेंगे जैसा कि यीशु ने बात की है, और जो कुछ वह कहता है उसके करने के द्वारा अपने लिए उसके प्रेम के प्रति और अधिक निरूत्तर हो जाओगे। यीशु ने कहा, “यदि तुम मेरी आज्ञाओं को मानोगे, तो मेरे प्रेम में बने रहोगे; जैसा कि मैं ने अपने पिता की आज्ञाओं को माना है, और उसके प्रेम में बना रहता हूँ। मैंने ये बातें तुम से इसलिए कहीं हैं, कि मेरा आनन्द तुम में बना रहे, और तुम्हारा आनन्द पूरा हो जाए।”23 वह चाहता है कि जो कुछ वह आपसे कहता है, उसके अनुसार आप अपने जीवन को व्यतीत करें और उसके प्रेम को अनुभव करें और एक विश्वासी होने के नाते आनन्द को पाएँ। परन्तु जिस तरीके से आपने उसके आदेशों को पालन करना है, वह तरीका उसके ऊपर निर्भर रहने का है, जब आप इन आदेशों को पालन करने का प्रयास करते हैं।
इसलिए जब मैं बाइबल में किसी ऐसे वचन को देखता हूँ, जहाँ परमेश्वर कहता है कि, “इसे करो….,” तो मैं एकदम परमेश्वर के कहता हूँ, “यह अच्छा विचार है। मैं अपने जीवन से तुझे प्रसन्न करना चाहता हूँ और मैं चाहता हूँ कि आप मेरे जीवन में इसे अपने आत्मा के द्वारा निर्मित करें। मुझे इस तरीके से तेरी आज्ञापालन करने की क्षमता दे। हे परमेश्वर, मैं संकट की ओर बढ़ रहा हूँ यदि मैं यह सोचता हूँ कि इसे अपने स्वयं की सामर्थ्य से कर लूँगा। परन्तु मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी सोच को बदल दें और जिस भी तरह से मेरे जीवन में कार्य करे, ताकि मेरा जीवन इस वचन के अनुरूप हो जाए। “और तब मैं किसी के बारे में भी चिन्ता नहीं करूँगा। हो सकता है कि मैं इस वचन को लिख लूँ, सीख लूँ, इसके बारे में सोचूँ, हो सकता है कि इसे स्मरण कर लूँ। परन्तु कार्य करने के लिए मेरा विश्वास परमेश्वर में बना रहेगा।
उसने आपको व्यवस्था की मांगों से स्वतंत्र कर दिया है, और वह आपको उसमें टिके रहने, उसके ऊपर निर्भर होने के लिए स्वागत करता है… जहाँ पर आप उसे जानने की घनिष्ठता के पूरे आनन्द को प्राप्त कर सकें।
“हे मेरे भाइयो, तुम भी मसीह की देह के द्वारा व्यवस्था के लिये मरे हुए बन गए, कि उस दूसरे के हो जाओ, जो मरे हुओं में से जी उठा ताकि हम परमेश्वर के लिए फल लाएँ।24
“…अब व्यवस्था से ऐसे छूट गए, कि लेख की पुरानी रीति पर नहीं, वरन् आत्मा की नई रीति…।”25
“क्योंकि हर एक विश्वास करने वाले के लिये, धार्मिकता के निमित्त मसीह व्यवस्था का अन्त है।”26
“परन्तु जो काम नहीं करता वरन् भक्तिहीन के धर्मी ठहरनेवाले पर विश्वास करता है, उसका विश्वास उसके लिये धार्मिकता गिना जाता है…।27
फुटनोट: (1) रोमियों 5:1, 2 (2) इफिसियों 1:4; 2 तिमुथियुस 1:9 (3) यूहन्ना 3:16 (4) रोमियों 5:8 (5) इफिसियों 1:3 (6) प्रकाशितवाक्य 3:20; यूहन्ना 1:12,13 (7) प्रकाशितवाक्य 3:20 (8) 1 यूहन्ना 3:1; कुलुस्सियों 1:13, 14; इफिसियों 1:4; यूहन्ना 1:12 (9) तीतुस 3:3-7 (10) इफिसियों 1:7 (11) रोमियों 3:20 (12) रोमियों 7:18,19 (13) रोमियों 7:24, 25 (14) रोमियों 8:1 (15) रोमियों 5:8-10 (16) गलातियों 2:16 (17) गलातियों 2:19-21 (18) इब्रानियों 10:16,17 (19) इफिसियों 2:8, 9 (20) 1 यूहन्ना 1:9 (21) यूहन्ना 15:4 (22) यूहन्ना 15:9 (23) यूहन्ना 15:10, 11 (24) रोमियों 7:4 (25) रोमियों 7:6 (26) रोमियों 10:4 (27) रोमियों 4:5