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कैसे परमेश्‍वर हमें परिवर्तित करता है

समय समय पर, हम हमारे जीवनों में उन क्षेत्रों को देखते हैं, जिनसे हम संघर्ष करते हैं; ऐसे क्षेत्र जिनके लिए हम चाहते हैं कि यह भिन्न होते। हो सकता है कि यह नैतिक जीवन में असफलता हो या ऐसी आदतें हों जो हमें निरूत्साहित कर देती हैं। परमेश्‍वर कैसे हमसे चाहते हैं कि हम इन क्षेत्रों का निपटारा करें? क्या स्वतंत्रता या वास्तविक परिवर्तन पाने के लिए कोई मार्ग है? हाँ, परमेश्‍वर के अनुग्रह के बारे में जिस बात को मैं समझ चुका हूँ, उसने मेरे जीवन में बहुत ही प्रभावशाली तरीके से भिन्नता को लाया है। और मैं विश्‍वास करता हूँ मैं आपके जीवन में भी प्रभावशाली भिन्नता को ला सकता हूँ।1

जब आप शब्द अनुग्रह को सुनते हैं, तो आपके मन में क्या आता है? मैंने इसकी सबसे उत्तम परिभाषा लेखक जोसफ़ कुक से पाई है जहाँ वह लिखते हैं कि, “उस चेहरे से अनुग्रह कुछ ज्यादा या कम नहीं है जिसे प्रेम उस समय पहनता है जब उसकी मुलाकात अपूर्णता, कमजोरी, असफलता, पाप से होती है।[1]

अनुग्रह क्या है?

यह परमेश्‍वर के हृदय का एक ऐसा गुण है जिसने उसे हमसे हमारे पापों के अनुसार व्यवहार न करने के लिए मजबूर कर दिया, या उसने हमारे अपराधों के विरूद्ध बदला लेने से रोक दिया। यह हमारे प्रति परमेश्‍वर की विश्‍वासयोग्यता है, तब भी जब हम विश्‍वासयोग्य नहीं थे। सच्चाई तो यह है, कि प्रेम सदैव ऐसा ही रहता है जब इसकी मुलाकात प्रेमरहित, कमजोर, अपर्याप्त, अयोग्य, और तिरस्करणीय से होती है। परमेश्‍वर योग्यताओं की ओर न देखते हुए आवश्यकता का उत्तर देने की इच्छा रखता है। यह बिना किसी योग्यता के की हुई कृपा है।

परमेश्‍वर का अनुग्रह उन सब के ऊपर प्रेम, दयालुता, कृपा से प्रगट होता है, जो उसके ऊपर भरोसा रखते हैं। आप इसे कमा नहीं सकते हैं। आपको केवल उसके साथ उसके अनुग्रह को पाने के लिए सम्बन्ध को बनाए रखना होगा।

हम में से अधिकांश को परमेश्‍वर के अनुग्रह की आवश्यकता है जब हम हमारे जीवन के प्रति जागरूक हो जाते हैं कि हम बहुत सी बातों में गलत हैं – जैसे: कमजोर निर्णय, आदतें, व्यवहार जिनके लिए हम शर्मिन्दा होते हैं, ऐसे क्षेत्र जहाँ परमेश्‍वर चाहता है कि हम परिवर्तन को लाएँ, परन्तु जहाँ पर हम हो सकता है कि परमेश्‍वर के दण्ड के डर को महसूस करते हैं। यदि हमने मसीह को हमारे हृदयों में स्वीकार किया है, तो हमें उसके होने, क्षमा किए हुए और उसके अनुग्रह के अधीन होना घोषित किया गया है। यह उसका अनुग्रह है कि जो हमें स्वतंत्र करता है और हमें परिवर्तित कर देता है। इसलिए ही यह जानना महत्वपूर्ण है कि परमेश्‍वर के अनुग्रह के बारे में पवित्रशास्त्र क्या कुछ कहता है।

हम सभी जानते हैं कि हमारे स्वयं के अन्तर में, हमारे पास एक भला भाग है और हमारे पास एक बुरा भाग है। हम में ऐसा भाग है जिसे हम चाहते हैं कि संसार देखे – जब हम उत्तम व्यवहार कर रहे होते हैं। और तब हमारे पास एक ऐसा भाग है जिसे हम अपेक्षाकृत छिपा लेते हैं – ऐसी बातें जिनके लिए हम शर्मिन्दा होते हैं।

हम ऐसी संस्कृति में रहते हैं जो कि स्वयं-के-सुधार की ओर झुकी हुई है। हम एक समय और ऊर्जा की एक बड़ी मात्रा स्वयं का विश्लेषण करने में खर्च कर देते हैं और यह प्रयास करते हैं कि इस बुरे भाग को किस तरह से बेहत्तर बनाया जाए। हम समान खरीदने जाते हैं या समय, ऊर्जा और धन के ऊपर ध्यान केन्द्रित करने के लिए व्यायामशाला में उसके सुधार के लिए जाते हैं जिसे हम अपना बुरा भाग मानते हैं। और इस भाग को हम सुधार नहीं सकते हैं, या हमने इसे नहीं सुधारा है, तौभी, हम इसे छिपाने का प्रयास करते हैं।

शर्म को छिपाना

क्या आप कभी ऐसी परिस्थिति में आए जहाँ आप का परिचय किसी से हुआ हो, और आप अपने अन्तर में कहते हैं, “मैं आशा करता हूँ कि वे मेरे बारे में इस बात को नहीं जान पाएंगे?” या हो सकता है कि आप अपने किसी एक अच्छे मित्र से कहें, “कृपा करके मेरे बारे में इस बात को किसी से कुछ न कहें।” जब हम परमेश्‍वर के साथ सम्बन्ध में प्रवेश करते हैं, तो हो सकता है कि हम सोचते हैं कि वह ऐसा है जैसे हम हैं। हम सोचते हैं कि हमें उससे हमारे बुरे भागे को छिपाने की आवश्यकता है। तथापि, यदि हम हमारे व्यक्तित्व को न स्वीकार किए जाने वाले भागों को छिपाने की कोशिश करें, तो हम हमारे वास्तविक स्वयं के साथ स्पर्श को ही खो सकते हैं और हम परमेश्‍वर के साथ अपने स्पर्श को खो सकते हैं।

परमेश्‍वर हमारे जैसा नहीं है। उसके तरीके हमारे तरीकों जैसे नहीं हैं। वह न केवल हमारे अच्छे भाग को ही स्वीकार करता है अपितु बुरे भाग को भी स्वीकार करता है। वह हमें एक पूर्ण व्यक्ति के रूप में देखता है। वह हमें विभाजित व्यक्तित्व के रूप में नहीं देखता है। वह कहता है कि, “अपने बुरे भाग को अच्छा बनाने की कोशिश न कर। यह तेरे स्वयं की कोशिश के असम्भव है। यह बात कोई अर्थ नहीं रखती कि आप इसे कितना भी अच्छा बनाने का प्रयास क्यों न करें, यह कभी भी पूर्ण रूप से अच्छी नहीं होगी, क्योंकि मैं पूर्ण हूँ। अपने अच्छे भाग और बुरे भाग को मुझे दे और मुझे तुझे पूर्ण बनाने दे।”

हम कैसे परमेश्‍वर के अनुग्रह का अनुभव करते हैं?

व्यवस्था को समझे बिना परमेश्‍वर के अनुग्रह को समझना कठिन है। हम परमेश्‍वर की सिद्ध व्यवस्था, उसके आदेशों, और यह कि वह चाहता है कि हम कैसे जीवन को यापन करें, को देखते हैं…और स्पष्ट कहना हम अक्सर इसे नहीं नापते हैं। हम व्यवस्था, परमेश्‍वर के आदेशों के साथ वही करते हैं जो हम करना चाहते हैं? व्यवस्था हमारे लिए एक दर्पण जैसा है। जब आप एक दर्पण में देखते हैं तो आप देखेंगे कि आपके चेहरे के ऊपर गन्दगी का एक धब्बा बना हुआ है, जिसे आप नहीं जानते थे कि वह वहाँ पर था। दर्पण उस गन्दगी से छुटकारा नहीं दिला सकता है, परन्तु कमरे में से बाहर निकलने से पहले जब आप दर्पण को देखते, तो वास्तव में आपने आप में हर्षित हो जाते हैं। ठीक कुछ इसी तरह से, परमेश्‍वर की व्यवस्था हमारी कमजोरियों, हमारे पापों को प्रगट करती है, और हम उन्हें देखने के लिए धन्यवादित हैं, ताकि हम उन्हें परमेश्‍वर के पास ले आएँ और परमेश्‍वर उनका निपटारा अपने अनुग्रह के द्वारा करे। गलातियों 3:24 कहता है, “इसलिये व्यवस्था मसीह तक पहुँचने के लिये हमारी शिक्षक हुई है कि हम विश्‍वास से धर्मी ठहरें।” जब हम मसीह के पास आते हैं, हम जानते हैं कि हमें एक उद्धारकर्ता की आवश्यकता है। सच्चाई तो यह है, कि बाकी के हमारे जीवन के लिए, हमें सदैव एक उद्धारकर्ता की आवश्यकता होगी।

इब्रानियों 4:13-16 कहता है कि, “सृष्टि को कोई वस्तु उससे छिपी हुई नहीं है वरन् जिस से हमें काम है, उसकी आँखों के सामने सब वस्तुएँ खुली और प्रगट हैं। इसलिये जब हमारा ऐसा बड़ा महायाजक है, जो स्वर्गों से होकर गया है, अर्थात् परमेश्‍वर का पुत्र यीशु, तो आओ, हम अपने अंगीकार को दृढ़ता से थामे रहें। क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दु:खी न हो सके; वरन् वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला। इसलिये आओ, हम अनुग्रह के सिहांसन के निकट हियाव बाँधकर चलें कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएँ जो आवश्यकता के समय हमारी सहायता करे।”

सच्चाई और नम्रता में आएँ

हम अनुग्रह को उस समय अनुभव कर सकते हैं जब हम अनुग्रह के सिंहासन के पास, सच्चाई और नम्रता से आते हैं। सच्चाई में आने के विपरीत बात यह है कि जब हम स्वयं को छिपाने की कोशिश करते हैं और हम ज्योति में नहीं आते हैं।

मैं स्पष्टवादी हो रहा हूँ और अपने जीवन के एक क्षेत्र के बारे में साझा करता हूँ, जिसे मुझे प्रभु, उसके अनुग्रह के सिंहासन के पास लाने की आवश्यकता थी। भोजन का पूरा क्षेत्र मेरे अधिकांश जीवन में मेरे लिए एक कठिनाई बना रहा। मुझे बिल्कुल भी स्मरण नहीं है कि मैं एक भारी बच्चे की तरह रहा हूँ, परन्तु मुझे स्मरण है जब मैं 10वीं कक्षा में था तो मेरे मित्र (जिनका वजन मुझ से कम था) उनके मोटे होने के बारे में शिकायत किया करते थे। और मैं सोचता हूँ, “यदि वे सोचते हैं कि वे मोटे हैं और मैं उनसे ज्यादा वजन का हूँ तो मैं निश्चित ही मोटा हूँगा!” मैं लगभग 118 किलो का था। मुझे उस समय का स्मरण है जब भोजन मेरे लिए मेरे जीवन में गम्भीरता का एक विषय बन गया। और मैं सोचने लगा कि मुझे कौन सा भोजन नहीं खाना चाहिए, जिसने मुझे सभी तरह के भोजनों को और अधिक खाने के लिए मजबूर कर दिया।

और मेरी माँ मुझे कुछ इस तरह से कहती थी, “मैं सोचती हूँ कि तुम तुम्हारे कपड़ों में आकर्षक तभी दिखोगे जब तुम उन भोजनों को नहीं खाओगे। क्यों नहीं तुम कुछ वजन को कम करने का प्रयास करते?” वह मुझे वजन कम करने या बढ़ाने वाले डॉक्टर के पास ले गई।

जब मैं कॉलेज में, यह जानते हुए गया कि मुझे कुछ निश्चित वस्तुओं को नहीं खाना चाहिए, तब मैं भोजन को लेता था और उसे छिपा देता था। मैं मीठे पदार्थों को अपनी मेज की दराज़ में छिपा देता था। एक बार मेरे बिस्तर में मैंने एक पूरे पाऊण्ड का केक छिपा कर रखा हुआ था। और यदि कोई ऐसा कहता था कि मुझे वह नहीं खाना चाहिए, क्योंकि यह मुझ में और 10 को लेने की चाहत को उत्पन्न करेगा। हमारे विद्यालय के पास बर्गर की दो दुकानें थीं। मुझे स्मरण है कि मैं उनमें से एक के पास चला जाता था और मक्खन से बने हुए बर्गर, तली हुई चीजों और एक कोक की बोतल को लाने के लिए कहता था और उन्हें खाता था। और तब मैं कार में जाता था और फिर बर्गर की दूसरी दुकान पर चला जाता था और फिर मैं दूसरे बर्गर, तली हुई चीजों और फलों के रस को खाता पीता था। एक ही स्थान पर इतना ज्यादा भोजन को लेना बहुत अधिक परेशानी में डालने वाला होता था इसलिए मैं दो भिन्न स्थानों पर जाया करता था। और यदि मेरे पास समय कम होता था, मैं एक ही स्थान पर जाता था और कहता था, “देखिए, मुझे एक मक्खन से बना हुआ बर्गर, तली हुई वस्तुएँ और कोक की एक बोतल चाहिए।” इसके पश्चात् मैं कहता, “अब वह क्या चाहता था? ओह हाँ, वह एक मांस से बना हुआ बर्गर और एक कोक की बोतल और तली हुई चीजों को चाहता है।” मैं ऐसे व्यवहार करता था जैसे कि मैं दो लोगों के लिए भोजन ले रहा था। और मैं बाहर चला जाता था और सब कुछ आप ही खा जाता था। परन्तु मैं छिप गया। और मैंने झूठ बोला।

छिपने से स्वतंत्रता

जब मैं मसीह के पास आया, तब उसने मुझे वैसे ही स्वीकार किया जैसा मैं था और वर्षों के बीतने के साथ धीरे धीरे मेरे भोजन की स्थिति में चंगाई की मात्रा में बढ़ोतरी हुई है। इससे पहले मैं भोजन खाने वाला एक विवश व्यक्ति था और वर्षों के मध्य में प्रभु ने मेरी इस विवशता के अधिकांश भाग को मुझ से ले लिया है।

परन्तु कभी कभी मैं इससे संघर्ष करता हूँ, विशेषकर मेरे विचारों में। उदाहरण के लिए, मैं जानता हूँ कि केस्टोन, क्लोराडो में अकेले रहने वालों की बड़ी सभा में प्रचार करने वाला हूँ, और मैंने सोचा, “मेरे केस्टोन पहुँचने से पहले मुझे अपने वजन को कम करना चाहिए।” मैंने प्रयास किया परन्तु मैं नहीं कर पाया। इसलिए मैंने सोचा, “ठीक है, अगले सोमवार मैं आरम्भ करूँगा।” और उस समय मैं सभा में जाने के समय निकट पहुँच रहा था इसलिए सभा में जाने से लगभग दो सप्ताह पहले, मैं लगभग 10 पाऊण्ड वजन घटाना चाहता था। जितना अधिक मैंने कोशिश की उतना ही अधिक यह कम नहीं हुआ। “आप जानते हैं ‘के’, मैं वास्तव में अपने वजन को लेकर निरूत्साहित हूँ। मैं कुछ कर नहीं पा रहा हूँ। मैं केस्टोन जाने से पहले लगभग 10 पाऊण्ड वजन घटाना चाहता हूँ।” जब मैंने वजन नापा तो मैंने उससे कहा। और उसने मेरी ओर देखा और कहा, “‘ने’, तुम क्या सोचते हो कि वे तुम्हें सभा में और अधिक प्रेम करेंगे यदि तुम अपने वजन को घटा लेते हो?” और यह सुनते ही मेरी बोलती बन्द हो गई। और मैंने उससे कहा, “क्या तुम जानते हो ‘के’, मैं सोचता हूँ मुझे में कुछ है जो ऐसा नहीं सोचता है।” और उसने मेरी ओर देखा और मुझ से कहा, “ने, मैं तुम्हें ऐसे ही प्रेम करती हूँ जैसे तुम हो। मैं परवाह नहीं करती कि तुम्हारा वजन कितना है।” और यह सुनते ही मैंने रोना आरम्भ कर दिया। मेरे मित्र ‘के’ ने मेरे प्रति अनुग्रह को प्रदर्शित किया जिसने मुझे नम्र बना दिया और मैंने उसे सच्चाई बता दी। और आप जानते हैं क्या हुआ? मैंने एक आन्तरिक प्रेरणा को पाया और इससे कुछ वजन कम हो गया।

जो व्यवस्था नहीं कर सकी उसे अनुग्रह ने किया। इब्रानियों 13:9 में कहता है, “क्योंकि मन का अनुग्रह से दृढ़ रहना भला है।” परमेश्‍वर भी हमारे साथ ऐसा ही करेगा, यदि हम उसके पास ईमानदारी से चले आएँ।

लूका 18:9-14 में यीशु ने इस दृष्टान्त को दिया है: “उसने उनसे जो अपने ऊपर भरोसा रखते थे, कि हम धर्मी हैं, और औरों को तुच्छ जानते थे, यह दृष्टान्त कहा।“कि दो मनुष्य मन्दिर में प्रार्थना करने के लिये गए; एक फरीसी था और दूसरा चुंगी लेनेवाला। फरीसी खड़ा होकर अपने मन में यों प्रार्थना करने लगा, ‘कि हे परमेश्‍वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ, कि मैं और मनुष्यों की समान अन्धेर करनेवाला, अन्यायी और व्यभिचारी नहीं, और न इस चुंगी लेनेवाले के समान हूँ। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ; मैं अपनी सब कमाई का दसवां अंश भी देता हूँ।’ “परन्तु चुंगी लेनेवाले ने दूर खड़े होकर, स्वर्ग की ओर आंख उठाना भी न चाहा, वरन् अपनी छाती पीट - पीटकर कहा; ‘हे परमेश्‍वर मुझ पापी पर दया कर!’ मैं तुम से कहता हूँ, कि वह दूसरा नहीं; परन्तु यही मनुष्य धर्मी ठहराया जाकर अपने घर गया; क्योंकि जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो अपने आप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा।”

ईमानदारी और विश्‍वास के साथ आएँ

यदि हम स्वयं को नम्र करने से इन्कार कर दें और उसके अनुग्रह को प्राप्त करें, तब वहाँ पर किसी तरह का कोई सम्बन्ध नहीं होगा। जब हम प्रभु के पास आते हैं और उससे कहते हैं कि हम उन क्षेत्रों में कितनी कमजोरी को महसूस कर रहे हैं तब वह हमारी आवश्यकता को अपने अनुग्रह में पूरी करेगा। परमेश्‍वर यह माँग नहीं कर रहा है कि हम स्वयं को परिवर्तित कर लें। इसकी अपेक्षा वह चाहता है कि हम उसके पास ईमानदारी और विश्‍वास के साथ चले आएँ, और अपनी सारी चिन्ताओं को उसके ऊपर डाल दें। (1 पतरस 5:5-7)

स्वास्थ्यशाली लोग वे लोग होते हैं जो यह जानते हैं कि वह किस क्षेत्र में कमजोर हैं और स्वयं को बचाने की अपेक्षा, वह यह कहने के योग्य होते हैं, “हे प्रभु, मुझ पापी के ऊपर दया कर।”

फ़रीसियों ने पवित्र रहने का, व्यवस्था पर टिके रहने का प्रयत्न किया, परन्तु उनका उद्देश्य अन्यों को प्रभावित करने का था। यीशु ने उन्हें “चूना पुती हुई कब्र” कह कर पुकारा है। वे बाहर से तो अच्छे दिखाई देते हैं, परन्तु अन्दर से वे मरे हुए हैं और उनके मन यीशु की ओर कड़वे हैं। उदाहरण के लिए, वे “सब्त के दिन काम न करने की” व्यवस्था को कठोरता से लागू करने लगे। जब यीशु ने तरस से भर कर सब्त के दिन किसी को चंगा किया तो उन्होंने इसके लिए उस की आलोचना की।

कई बार यह हमारे लिये प्रभु से सम्बन्ध बनाए रखने की अपेक्षा व्यवस्था से सम्बन्ध बनाए रखना आसान होता है। और शैतान चाहता है कि हम प्रभु के ऊपर ध्यान केन्द्रित करने की अपेक्षा व्यवस्था (परमेश्‍वर के आदेशों) पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करें।

क्या हम परमेश्‍वर के अनुग्रह का अनुभव करते हैं? हमें नम्रता और सच्चाई से उसके पास आने की आवश्यकता है। याकूब 4:6 कहता है कि, “परमेश्‍वर अभिमानियों का विरोध करता है, पर दीनों पर अनुग्रह करता है।”

कुछ वर्ष पहले, एक जवान स्त्री मेरे पास एक सेमीनार के अन्त में आई। उसका चेहरा पूरी तरह से अन्धकारमय लग रहा था और ऐसा जान पड़ता था कि उसे बहुत ही भारीपन लग रहा है और दोष महसूस हो रहा है। जब हमने बात करना आरम्भ किया, मैंने जान लिया कि मसीह उसके जीवन के अन्दर है, परन्तु उसमें एक ऐसी आदत है, जिसके कारण वह बहुत अधिक शर्मिन्दा है। उसने इस आदत से छुटकारा पाने का बहुत अधिक प्रयास किया है, परन्तु वह असफल हो गई थी। वह इसे रोक नहीं पा रही थी। अपनी सभी तरह की शपथों और प्रयासों के पश्चात् भी, वह इसे रोक नहीं पाई थी। और जब वह बात पुन: घटित हुई उसने डर और दोष को महसूस किया। मैंने उसे वर्णित किया कि शैतान इस बात से प्रेम करता है कि हम पाप करें और वह हमें हमारे सिर के ऊपर से हराने और हमें दोषी ठहराने में प्रेम रखता है। और मैंने उससे पूछा कि क्या वह कभी इसे प्रभु के पास लाई है। और उसने उत्तर दिया कि नहीं। वह बहुत अधिक शर्मिन्दा थी इसलिए वह इसे कभी भी प्रभु के पास लेकर नहीं आई थी।

मैंने उससे कहा कि, “अगली बार जब यह घटित होता है, अकेले में चले जाने की अपेक्षा, दोषी ठहरे रहने की अपेक्षा, मैं चाहता हूँ आप अपने पाप को इस बात का स्मरण दिलाने के लिए उपयोग करें कि परमेश्‍वर आपको प्रेम करता है।” मैंने उससे कहा कि अगली बार वह प्रक्रिया में है, वह इसे कुछ इस तरह का कहते हुए ज्योति में ले आए, “हे परमेश्‍वर, मैं तेरा धन्यवाद करती हूँ कि मैं तुझसे सम्बन्धित हूँ। हे परमेश्‍वर, मैं तेरा धन्यवाद करती हूँ कि तू मुझे से प्रेम करता है। हे परमेश्‍वर, यीशु मसीह का लहू मुझे मेरे सारे पापों से शुद्ध करता है। मैं अपने पाप को स्वीकार करती हूँ, परन्तु मैं इससे छुटकारा नहीं पा सकती जब तक आप मुझे इसके लिए योग्य न करें। हे परमेश्‍वर, मैं अपनी इच्छा; अपने आप को, आपकी और आपके वचन की ओर रख देती हूँ। क्या तू मुझ में और अपनी आत्मा के द्वारा उस कार्य को करेगा जिसे मैं स्वयं से नहीं कर सकती हूँ?”

मैंने उसके साथ मिलकर इकट्ठे प्रार्थना की और परमेश्‍वर को उसके अनुग्रह और शान्ति के लिए धन्यवाद दिया। यह मुझे बिल्कुल ही स्पष्ट हो गया था कि वह मुड़ना चाहती थी और अपने पापों से पश्चाताप करना चाहती थी और उसने ऐसा किया भी। कुछ महीनों के पश्चात् मुझे उसकी ओर से लिखी हुई एक टिप्पणी प्राप्त हुई क्योंकि मैंने उससे कहा था कि वह मुझे लिखे ताकि मैं जानूँ कि उसका हालचाल कैसा था। अपने पत्र में, उसने कहा कि उसने वैसा ही किया जैसा मैंने उसे करने के लिए कहा था, और उसने ऐसे कहा, “‘ने’, मैं आश्चर्यचकित हूँ कि कैसे इन कुछ ही महीनों में, वह सब कुछ, पहले कि तुलना में, जो मुझे परेशान कर रहा था कम होता चला गया है।” वह पाप के बन्धन में जकड़ी हुई थी परन्तु अनुग्रह से परे थी। जब उसने स्वयं को प्रभु और मेरे सम्मुख नम्र किया और जब वह अपने पाप को परमेश्‍वर के अनुग्रह की ज्योति में ले आई, उसने उससे वहीं पर मुलाकात की।

प्राप्त करने के लिए विश्‍वास कीजिये।

इब्रानियों 4:13, “सृष्टि की कोई वस्तु उससे छिपी हुई नहीं है वरन् जिस से हमें काम है, उसकी आँखों के सामने सब वस्तुएँ खुली और प्रगट हैं।” रोमियों 5:20 कहता है, “जहाँ पाप बहुत हुआ वहाँ अनुग्रह उससे भी कहीं अधिक हुआ।” परमेश्‍वर का अनुग्रह वहाँ पर उपलब्ध है, परन्तु हमें प्राप्त करने के लिए इस पर विश्‍वास करना होगा। हमें उसके वचन को मान लेना होगा और उसका अनुग्रह वहाँ पर है, ताकि हम उसे प्राप्त करने के लिए सक्षम हो सकें। किसी ने कहा है कि केवल एक ही अनिवार्य शर्त है जिसे पूरा किया जाना चाहिए यदि अनुग्रह को एक व्यक्ति को परिवर्तित करना है, वह यह है कि परमेश्‍वर के अनुग्रह पर विश्‍वास किया जाना चाहिए। हमें उत्तर देते हुए भरोसे के साथ परमेश्‍वर को अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए। और वह कार्य करेगा।

यदि मैं यह जान सकता कि परमेश्‍वर पूर्ण रूप से भरोसे के योग्य है, यदि मैं यह जान सकता कि उसका प्रेम बिल्कुल वास्तविक है, यह कि उसकी दयालुता पूर्ण रूप से गंभीर है, यह कि उसकी मेरे लिए चिन्ताएँ वास्तव में एक भरपूरी के जीवन के लिए हैं, तब वह वही करेगा जो उसका पूर्ण स्वभाव में करने के लिए है। वह मुझे ढूंढने के लिए मेरे अन्तर की गहराई तक पहुँच जाएगा जहाँ पर मैं वास्तव में जीवित हूँ। उसका अनुग्रह मुझे परिवर्तित कर देगा। यह मेरे हृदय की गहराई की प्रेरणा की बातों को स्पर्श कर लेगा और वह मुझे एक नया मनुष्य बना सकता है। और यह वही बात है जिसे परमेश्‍वर हमारे लिए करने के लिए समर्पित है। वह कहता है, “मैं अपनी व्यवस्था को उनके मनों पर डालूँगा, और उसे उनके हृदयों पर लिखूँगा, और मैं उनका परमेश्‍वर ठहरूँगा और वे मेरे लोग ठहरेंगे” (इब्रानियों 8:10) परमेश्‍वर अपने अनुग्रह के द्वारा हमारे जीवन में कार्य करेगा जिसे बाहरी व्यवस्था कभी नहीं कर सकती है।

2 कुरिन्थियों 3:18 कहता है, “परन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप से अंश अंश करके बदलते जाते

हैं।” परिवर्तिन एक प्रक्रिया है। जब हम परमेश्‍वर में भरोसा करते हैं और उसके वचन को मान लेते हैं, तो वह हमारे हृदयों और मनों को परिवर्तित करने के लिए स्वतंत्र हो जाता है। परन्तु इसे समझने की आवश्यकता है कि यह परिवर्तन अचानक से नहीं हो जाते हैं। यह एक प्रक्रिया है।

लुईस स्प्रै शेफर ने अनुग्रह के ऊपर एक बहुत ही व्यापक पुस्तक को लिखा है और वह कहते हैं, “परमेश्‍वर के वचन की जबदस्त गवाही यह है कि उद्धार का प्रत्येक पहलू, ईश्वरीय अनुग्रह की प्रत्येक आशीष, समय और अनन्तता में जो कुछ में विश्‍वास में किया जाता है उसके ऊपर आधारित है।”

परमेश्‍वर उसके अनुग्रह से हमें बचाता है

हम तब कैसे परमेश्‍वर के अनुग्रह का अनुभव करते हैं? हम प्रभु के पास अपनी कमजोरियों के साथ, अपनी अयोग्यताओं के साथ, अपने पाप में और अपनी असफताओं के साथ आते हैं। हम उसे प्रेम करने में हमें परिवर्तित करने की योग्यता में विश्‍वास करना चुनते हैं, जब हम उसके अनुग्रह के ऊपर आधारित होते हैं। परिणाम यह निकलता है कि हम वृद्धि करते हैं।

2 पतरस 3:18 कहता है, “हमारे प्रभु और उद्धारकर्ता यीशु मसीह के अनुग्रह और पहचान में बढ़ते जाओ।”

लूका 15 में उड़ाऊ पुत्र की कहानी में, उड़ाऊ पुत्र घर छोड़कर चला जाता है, अपने पिता की सम्पत्ति को उड़ा देता है, अन्त में अपनी आवश्यकता और अपने पिता की सम्भावित दयालुता को पहचानता है। (वचन 17) “मेरे पिता के कितने ही मजदूरों को भोजन से अधिक रोटी मिलती है, और मैं यहाँ पर भूखा मर रहा हूँ? मैं उठकर अपने पिता के पास जाऊँगा और उससे कहूँगा कि, ‘पिता जी, मैंने स्वर्ग के विरोध में और तेरी दृष्टि में पाप किया है। अब मैं इस योग्य नहीं रहा कि तेरा पुत्र कहलाऊँ, मुझे अपने एक मज़दूर के समान रख ले।’” उसने स्वयं को नम्र किया और उठ खड़ा हुआ और अपने पिता की ओर चला गया। वह अपनी सच्चाई में था जब वह पिता के पास आ गया। परन्तु आप जानते हैं क्या हुआ? उसके बड़े भाई को यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। बड़े भाई ने अपने पिता का विरोध किया जिसने अपने अनुग्रह को अपने पुत्र की ओर बढ़ाया था, विधिवादिता को प्रस्तुत करता है। क्योंकि बड़ा भाई कह रहा था कि, उसने व्यवस्था को पालन नहीं किया, वह अनुग्रह को पाने के योग्य नहीं है। परन्तु पिता इस बात के पश्चात् भी उससे प्रेम करता है कि उड़ाऊ पुत्र ने चाहे जो कुछ भी क्यों न किया था।

व्यवस्था से अधिक परमेश्‍वर के साथ निर्मित सम्बन्ध कहीं अधिक सामर्थी होता है। शैतान अपेक्षाकृत यही चाहेगा कि हम व्यवस्था की विधिवादिता से सम्बन्धित रहें ताकि हम आत्मग्लानि में घुमते रहें और सदैव के लिए दोषी रहें। परन्तु रोमियों 8:1 में प्रभु कहता है, “अत: अब जो मसीह यीशु में है, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं।” अनुग्रह के अधीन हमारे स्वयं की अपेक्षा हमारे पास और अधिक संसाधन हैं। हमारे पास परमेश्‍वर का पवित्रात्मा है जो हमें उसकी इच्छा को पूरा करने के लिए सक्षम करता है। आत्मा से भरा हुआ जीवन क्षण-दर-क्षण उसके अनुग्रह की पहचान करना है। आत्मा से भरा हुआ जीवन इस बात की पहचान है, जब मैं असफल हो जाता हूँ और परमेश्‍वर की ओर आते रहता हूँ, और परमेश्‍वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह हम में परिवर्तन को लाए जो हम में वृद्धि को लाता है।

क्रूस के ऊपर, यीशु हमारे पापों के लिए, हमारी बुराई के लिए मर गया। हम दोषी थे और उसने हमारे दोष के दण्ड को अदा कर दिया। जब हम हमारे पापों को अंगीकार कर लेते हैं, तो हम उसका निपटारा कर रहे जो गलत है और जिसे पहले ही क्रूस ने अदा कर दिया है। परमेश्‍वर के पुरूष और स्त्री होने के कारण यह हमारे अपने पाप के बारे में नम्र और सत्य होने और उसके अनुग्रह को स्वीकार करने और उसमें वृद्धि करने का विषय है।

जॉन पौवल ने ऐसे कहा है, “हम सोचते हैं कि हमें परिवर्तित होना है, वृद्धि करना और प्रेम किए जाने के लिए भला होना है। परन्तु इसकी अपेक्षा हमें प्रेम किया जाता है और हम उसके अनुग्रह को पाते हैं ताकि हम परिवर्तित हो सकें, वृद्धि कर सकें और भले हो सकें।”

हमारे जीवन में चंगाई के सीमित होने का नाप उसी मात्रा तक है जिसमें हम स्वयं को प्रगट नहीं करते हैं। वृद्धि करने के लिए हमें उसके प्रति समर्पण को थामे रहते हैं जो सत्य है। परमेश्‍वर का अनुग्रह हमें परमेश्‍वर का सामना और परमेश्‍वर के वचन के आलोक में हमारे बारे में सत्य का सामना करने के लिए स्वतंत्रता देता है। यह जानते हुए कि हमें पूरी तरह से प्रेम किए जाता हैं और हम उसके द्वारा स्वीकार किए जाते हैं, वह हमें बुलाता है कि हम उसके पास सब कुछ के साथ आ जाएँ ताकि वह हमें स्वतंत्रता (यूहन्ना 8:12) और अधिक भरपूरी के जीवन (यूहन्ना 10:10) का अनुभव करने के लिए सहायता कर सके।

अब और दण्ड की आज्ञा नहीं

मैं एक जवान स्त्री का स्मरण करता हूँ, जो मेरे पास परामर्श लेने के लिए आई। उसके विवरण के अनुसार, उसका पेट गाँठों से बन्धा हुआ था, उसका दोष अत्यधिक था और वह सो नहीं पा रही थी। वह बहुत अधिक आत्मग्लानि और अविश्वनीय डर और अपमान से भरी हुई थी। वह कारण जिससे वह ऐसा महसूस कर रही थी वह यह था कि वह अनैतिकता में सम्मिलित थी। वह जानती थी कि परमेश्‍वर का वचन कहता है कि उसे इसमें सम्मिलित नहीं होना चाहिए था। वह एक जाल में जकड़ी हुई थी और किसी को भी बताने के लिए डर रही थी क्योंकि वह त्याग दिए जाने के लिए डर रही थी। अपने सिर को नीचे करते हुए उसने अपनी पूरी कहानी को कह डाला। उसके पास छोड़ने के लिए कुछ नहीं बचा था, क्योंकि उसको सहायता की आवश्यकता थी। वह वास्तव में अपने पाप के लिए पश्चातापी थी। वह पश्चातापी थी। मेरी उपस्थिति में, उसने प्रभु के सामने अपने पापों का अंगीकार किया और उसकी क्षमा और अनुग्रह को स्वीकार किया। उसने मुझे बाद में बताया कि जब वह आई थी, तब वह आन्तरिक भावनात्मक बन्दीगृह मैं कैद थी। और जब वह आई तो उसने क्या पाया, तिरस्कार की अपेक्षा, प्रेम और उसे स्वीकार किए जाने को पाया।

कुछ महीनों के पश्चात् मैंने एक पत्र को प्राप्त किया। उसने कहा, “मेरी जंजीरें टूट गई हैं, कालकोठरी के दरवाजे खुल गए हैं, एक हजार पाऊण्ड वजन मेरे ऊपर से उठ गया है। मेरे पास स्वतंत्रता और ताजगी का भाव है। जब मैं आपकी उपस्थिति में थी तो मेरे पास कुछ भी नहीं था। यही कुछ है जो आपने किया। यही आप हैं जो आपको होना चाहिए। आपने उसके प्रेम, स्वीकार किए जाने और मेरे लिए क्षमा को प्रदर्शित किया।” मैंने उस समय उससे कहा कि वह मेरे प्रति जवाबदेह रहे और उसने बाद में मुझे कहा कि जवाबेदही कभी एक बोझ की तरह महसूस नहीं हुई। परन्तु उसने स्वयं को इससे सुरक्षित समझा क्योंकि वह ऐसे व्यक्ति के प्रति जवाबेदह थी जिसने अनुग्रह को विस्तारित किया था। वह और अधिक अतिरिक्त सहायता को प्राप्त कर पाई और अपनी स्वयं की आवश्यकताओं को और अधिक समझ गई। उसने कहा कि अनुग्रह धर्मविज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण बन गया था जब उसने इसका अनुभव किया।

व्यवस्था जो भली, पवित्र और पूर्ण है, ने उसके पापों को एक दर्पण की तरह दिखा दिया। उसने स्वयं को नम्र किया। उसने अंगीकार किया। उसने स्वयं से, मुझ से, प्रभु से सच्चाई कही। और इसके परिणामस्वरूप उसने अपनी आवश्यकता अनुसार अनुग्रह को प्राप्त किया। अपने पापों को प्रकाश में और नम्रता के साथ प्रभु और सच्चाई के पास लेने के द्वारा उसने उसके अनुग्रह को प्राप्त किया और इसने उसे वृद्धि करने के लिए स्वतंत्र कर दिया।

अपने जीवन के उस क्षेत्र या उन क्षेत्रों के बारे में सोचें जहाँ पर आप दोष या तिरस्कार को महसूस करते हैं…जहाँ आप यह महसूस नहीं करते हैं कि आप पूर्ण हैं। हमें उसके पास नम्रता और सच्चाई से आना चाहिए जहाँ हम परमेश्‍वर की व्यवस्था को पूरा करने में असफल हो जाते हैं। वहाँ पर छिपाने की कोई आवश्यकता नहीं है। वहाँ पर झूठ बोलने की कोई आवश्यकता नहीं है। वहाँ पर दोषी होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

“अत: जो मसीह यीशु में, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं। क्योंकि वे शरीर के अनुसार नहीं वरन् आत्मा के अनुसार चलते हैं। क्योंकि जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया है। क्योंकि जो काम व्यवस्था… दुर्बल होकर न कर सकी, उस को परमेश्‍वर ने… अपने ही पुत्र को पापमय शरीर की समानता में और पापबलि होने के लिये भेजकर, शरीर में पाप पर दण्ड की आज्ञा दी। इसलिये कि व्यवस्था की विधि हममें जो शरीर के अनुसार नहीं वरन् आत्मा के अनुसार चलते हैं, पूरी की जाए।” (रोमियों 8:1-4)

“परमेश्‍वर अभिमानियों का विरोध करता है, परन्तु दीनों पर अनुग्रह करता है। इसलिये परमेश्‍वर के बलवन्त हाथ के नीचे दीनता से रहो, जिस से वह तुम्हें उचित समय पर बढ़ाए। अपनी सारी चिन्ता उसी पर डाल दो, क्योंकि उसको तुम्हारा ध्यान है।” (1 पतरस 5:5-7)

“यदि परमेश्‍वर हमारी ओर है, तो हमारा विरोधी कौन हो सकता है? जिसने अपने निज पुत्र को भी न रख छोड़ा, परन्तु उसे हम सब के लिये दे दिया, वह उसके हमें और सब कुछ क्यों न देगा?…मसीह ही है…जो हमारे लिये निवेदन करता है? कौन हम को मसीह के प्रेम से अलग करेगा?…क्योंकि मैं निश्चय जानता हूँ कि न मृत्यु, न जीवन, न स्वर्गदूत, न सामर्थ्य, न ऊँचाई, न गहराई, और न कोई और सृष्टि हमें परमेश्‍वर के प्रेम से जो हमारे प्रभु मसीह यीशु में है, अलग कर सकेगी।” (रोमियों 8:31-39)

फुटनोट: (1) अनुग्रह के लिए जीवन-परिवर्तित कर देने वाली सामर्थ्य - लेने की स्वतंत्रता, जोसफ़ कुक द्वारा रचित पुस्तक (उपलब्ध नहीं है)

यह लेख ने बैली द्वारा रचित पुस्तक विश्‍वास एक भावना नहीं है, से लिया हुआ अनुमति प्राप्त अंश है।